Tuesday 3 November 2015

"मुक्तक दिवस - 123" राम आशीष यादव जी का पुरस्कृत मुक्तक

पेट तब तक ही भरेगा जब तलक खेती रहेगी |
चाहे कितना भी बदल लो देह ये मिट्टी रहेगी |
तब तलक ही है सलामत प्यार की खुशबू जहाँ में,
सबके दिल में और नज़र में शीर्ष पर बेटी रहेगी |
-डॉ राम आशीष यादव.

"अभिव्यक्ति - मन से कलम तक" अल्पना सुहासिनी जी की पुरस्कृत रचना

ये मुस्कुराती बेटियाँ, ये खिलखिलाती बेटियाँ .
लगती हमें भली बहुत ये गुनगुनाती बेटियाँ.

ये पंख जो फैलायें तो आसमान चूम लें 

एक ही क़दम मॆ ये जहान सारा घूम लें. 
भले ही दर्द से रहा हो रात दिन का वास्ता, 
मिले जो नन्ही सी खुशी तो उस खुशी मॆ झूम लें.
न जाने कैसे लोक से हैं आती जाती बेटियाँ. 
ये मुस्कुराती बेटियाँ, ये खिलखिलाती बेटियाँ . 
लगती हमें भली बहुत ये गुनगुनाती बेटियाँ.

माँ के ममत्व से भरी, बहन के प्यार सी खरी, 
बीवी के सेवा त्याग के भाव से रहे भरी. 
हरेक रूप मॆ जंचे, हरेक रूप मॆ फबे, 
साहस की प्रतिमा बन शोलों से भी नहीं डरी.
देश की रक्षा को जां पे खेल जाती बेटियाँ. 
ये मुस्कुराती बेटियाँ, ये खिलखिलाती बेटियाँ. 
लगती हमें भली बहुत ये गुनगुनाती बेटियाँ. 
-अल्पना सुहासिनी

"मुक्तक दिवस - 122" प्रह्लाद पारीक जी का पुरस्कृत मुक्तक

कभी कभी लगती हो मेरी ग़ज़लों पर तुम दाद प्रिये |
चलता रहता मन ही मन में तुम से क्यों संवाद प्रिये ?
तुम्हें न कह पाया मैं अपना, दूरी भी सह सका नहीं,
जीवन को क्या मोड़ दे गयी शेष तुम्हारी याद प्रिये |
-प्रहलाद पारीक

"मुक्तक दिवस - 121" डॉ.दिनेश चन्द्र भट्ट जी का पुरस्कृत मुक्तक

पापियों का देख लो,गुलशन हरा है आज क्यों?
सत्जनो का आह से,जीवन भरा है आज क्यों?
न्याय तेरा है यही तो,ये नहीं मंजूर हमको
ईश होने पर,नहीं उतरा खरा है आज क्यों?
-डॉ.दिनेश चंद्र भट्ट,गौचर(चमोली)उत्तराखंड

Wednesday 14 October 2015

"मुक्तक दिवस- 120" कुलदीप ब्रजवासी जी का पुरस्कृत मुक्तक

बराबर काम करता है मगर तनखा नहीं पूरी |

कुशल मंगल अनुज घर हो करें यह सोच मजदूरी |


जरूरत है जिसे शिक्षा की उसके हाथ में ईंटें,


जताती बेबसी को ये रहीं जो भी हैं मजबूरी |


- कुलदीप ब्रजवासी

"अभिव्यक्ति - मन से कलम तक" अरविन्द उनियाल 'अनजान' जी की पुरस्कृत रचना


बाबाजी को अक्सर मैंने ,रात जागते देखा है ।

वृद्धालय में हँसते-हँसते, दर्द फांकते देखा है ।


देख बुढ़ापे में जिस माँ को, बेघर तूने कर डाला,
तेरी खातिर मैने उसको, दुआ मांगते देखा है ।


प्रात जागती है आशाएँ , शाम टूटती उम्मीदें,
किसने करवट लेती माँ को, रात काटते देखा है ?


हर आहट पर कान लगे हैं, बेटा लेने आएगा,
मरते दम तक बाबाजी को, राह ताकते देखा है ।


पोता कितना बड़ा हुवा है, नया हुवा क्या आँगन में?
बूढ़ी आँखों को ये ढेरों प्रश्न, पालते देखा है ।


कोने में अब बैठे रहते होली, ईद , दिवाली पर,
माँ, बापू को अंतर्मन में, जख्म सालते देखा है ।


हँसकर जीवन जीते बाबा, फिर भी इनकी आँखों से,
मन की पीड़ा का आंसू 'अनजान' झाँकते देखा है।


-अरविन्द उनियाल 'अनजान' 

Tuesday 6 October 2015

"मुक्तक दिवस - 119" बनवारी लाल मूरख बिसलपुरी जी का पुरस्कृत मुक्तक


एक तूफान उसके अन्दर है.

फिरभी दिलकी जमीन बंजर है.
नोके मिजगाँ पे जो कि ठहरा वो..
ग़म का कतरा नहीं,समन्दर है.
-मूरख,बीसलपुरी